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कुछ ऐसे अहम प्रबंधन कौशल, जो मृदा स्वास्थ्य को टिकाऊ बनाते हैं, निम्नांकित हैं:   

1. स्थान विशेष के आधार पर संतुलित रूप से उर्वरक का प्रयोग करना, ताकि नाइट्रोजन उर्वरक के विपरीत प्रभावों से बचा जा सके।  

2. मांग के आधार पर अजैविक/जैविक पोषण प्रबंधन को व्यवहार में लाना, जिनमें मौसम से पहले तथा उसके बाद हरे लेग्यूम/हरे खाद का उपयोग करना। 

3. चावल-चावल की बजाए चावल-गैर-चावल फ़सल का उपयोग करना, ताकि सही वातन हो सके और मृदा फेनॉल से भरपूर जैविक पदार्थ का अनावश्यक निर्माण से बचा जा सके। 

4. चावल के साथ फ़सल चक्रण के लिए लेग्यूम पौधों का उपयोग करना, जो न केवल मिट्टी को समृद्ध बनाते हैं, बल्कि मोनोकल्चर/अनाज-अनाज चक्रण के साथ होने वाले ऐलेलोपैथी से बचाव करता है। 

5. पोषण हानि, लवणता तथा जल जमाव की समस्या को कम करने के लिए उचित जल प्रबंधन करना। 

6. मृदा के जैव

1. पूर्व चेतावनी वाले मृदा स्वास्थ्य संकेतकों की कमी।

2. मृदा स्वास्थ्य के भौतिक तथा जैविक आयामों के निर्धारण के लिए सरल तथा सटीक प्रोटोकॉल तथा उपकरणों की कमी। 

3. मृदा स्वास्थ्य के त्रिविम तथा सामयिक गुण की भिन्नता इसके मापन में कठिनाई पैदा करती है। 

4. किसानों की भाषा में मृदा स्वास्थ्य के लिए फ्रेम वर्क की कमी, जैसे कई सारे मृदा मापन की जगह पर कोई एकल उपयोगी इंडेक्स की कमी है।  

 

 

26
Sep

मृदा स्वास्थ्य की निगरानी

1. मृदा स्वास्थ्य की वास्तविक समय वाली निगरानी संभव नहीं,

पर उपयुक्त समयांतरालों में संकेतकों के मापन के जरिए इसकी निगरानी की जा सकती है, जो उनकी संवेदनशीलता पर निर्भर करती है और इसके लिए मानक विधियों का प्रयोग किया जाता है, जिनमें मृदा स्वास्थ्य में होने वाले परिवर्तनों को परखा जाता है, ताकि रक्षात्मक कदम उठाए जा सकें।  

2. यदि अहम प्रवृत्तियां किसी काफी कोलाहलपूर्ण संकेत से ली जाएं तो मुख्य समस्या है नमूनों के बीच भिन्नता, जिससे उचित नमूना एकत्रण तथा विश्लेषण विधि के इस्तेमाल की आवश्यकता पड़ती है। हालांकि मृदा के कई गुणों में परिवर्तन की दरें निम्न और अल्प होती हैं, वहीं कुछ मृदा गुण तीव्रता से बदलते हैं (खासकर वे जो प्रबंधन पद्धतियों से प्रभावित होते हैं तथा वे जो संदूषकों के आगत के प्रति संवेदनशील होते हैं।)। जिस समयांतरालों पर मृदा के स्वास्थ्य के

1. मृदा स्वास्थ्य के आसानी से मापे जाने हेतु संकेतक अहम होते हैं,

जिसके जरिए हम मृदा की गुणवता की निगरानी/मूल्यांकन करते हैं। 

2. संकेतकों को गुणात्मक (बोध, गंध, रूप-रंग) के जरिए तथा विश्लेष्णात्मक (रासायनिक, भौतिक तथा जैविक) तकनीकियों के जरिए मापा जाता है। 

3. निम्नांकित अहम रासायनिक, भौतिक तथा जैविक गुण हैं, जिनके जरिए व्यापक रूप से मृदा के स्वास्थ्य का निर्धारण किया जाता है।  

 

1. मृदा स्वास्थ्य में कमी को निम्नीकरण करते हैं तथा यह मुख्य रूप से उपरिक्त तीन घटकों के कारण होता है, जो हैं- भौतिक निम्नीकरण (अपरदन, संरचना में गिरावट- पैन निर्माण/ संघनन, मृदा कैपिंग/क्रस्ट निर्माण), रासायनिक निम्नीकरण (पोषक तत्त्वों में कमी/लवणता/सॉडिफिकेशन/अम्लीकरण/रासायनिक प्रदूषण) तथा जैविक निम्नीकरण (जैविक पदार्थों की हानि, पोषण चक्र विधि का बाधित होना।)। 

2. वैश्विक स्तर पर पिछ्ले 50 सालों से होने काले मृदा निम्नीकरण को फसल भूमि का 13% माना गया है।  

3. दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व एशिया में सकल घरेलू कृषि उत्पाद की 1-7% की आर्थिक हानि मृदा के निम्नीकरण के कारण होती है। 

4. भारत में होने वाले विभिन्न प्रकार के मृदा निम्नीकरणों में जल द्वारा अपरदन (150 m.ha), हवा द्वारा अपरदन(110.6 m.ha) देखा गया है। भौतिक निम्नीकरण के अन्य रूप (जल जमाव) के कारण यह अपरदन 11.6 m.ha.  देखा गया है।

1. वैज्ञानिक साहित्य में “मृदा गुणवत्ता” तथा “मृदा स्वास्थ्य” का काफी उपयोग होता है, जिसका अर्थ होता है बिना क्षीण हुए या पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना फ़सल की वृद्धि को बढ़ावा देना। 

2. कुछ लोग मृदा स्वास्थ्य जैसे शब्द का इस्तेमाल इसलिए करते हैं कि यह जीवित, गतिशील अवस्था वाली मानी जाती है, जो रेत, गाद और कीचड़ के कणों की बजाए काफी पोषक रूप में कार्य करती है।  

3. कुछ लोग मृदा गुणवत्ता शब्द का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि यह मृदा गुणों, जैसे भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों की भिन्नता को मापने पर जोर डालता है। 

 

1. चावल के टिकाऊ उत्पादन, टिकाऊ कृषि प्रणालियां तथा साथ ही भूमि उपयोग के लिए मृदा के मूल्यांकन तथा प्रबंधन के लिए मृदा स्वास्थ्य को समझना जरूरी होता है, ताकि वर्तमान में इसका आदर्श उपयोग हो सके तथा भविष्य के उपयोग के लिए उसकी गुणवत्ता में गिरावट न आ सके।  

2. कृषि में मृदा का महत्व है तथा इसे बनाए रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। हालांकि हमने इसकी उत्पादकता की समस्या को काफी बढ़ा दिया है। 

3. इस प्रकार यह समझना जरूरी हो जाता है कि मृदा स्रोतों के अल्प कालिक उपयोग तथा इसके दीर्घ कालिक टिकाऊपन के बीच एक संतुलन कायम हो। 

4. अतः मृदा स्रोत को विवेकपूर्ण रूप से इस्तेमाल करने की जरूरत है ताकि उपयोग तथा टिकाऊपन के बीच एक सही संतुलन कायम हो सके। 

 

 

1.Si की आपूर्ति बढ़ने से (बाढ़ की स्थिति में), पत्तियों की Si मात्रा भी बढ़ जाती है, जिससे राइस ब्लास्ट जैसे कवक रोगों के प्रति संवेदनशीलता में भी गिरावट आती है। 

2. हाइफी (उत्तकों का सिलिफिकेशन) के भेदन के ख़िलाफ एपिडर्मल कोशिकाओं में भौतिक अवरोध के निर्माण मुख्य विधि है, जिसके जरिए  Si राइस ब्लास्ट जैसे रोगों के प्रति प्रतिरोध पैदा करता है। इसके अलावा  Si  पौधों में घुलनशील  N की मात्रा को कम करता है, जिससे मिट्टी में चिटिनेज सक्रियता को प्रेरित होती है। 

3. राइस ब्लास्ट के नियंत्रण में खासकर उच्च नाइट्रोजन की स्थिति में  Si पौधों में  Si की मात्रा को तनु बनाता है, जो बढ़े हुए वृद्धि/फाइटोमास के कारण होता है।  

4. अन्य चावल रोग जैसे ब्राउन स्पॉट/शीथ ब्लाइट/स्टेम रॉट भी  Si के पोषण के कारण कम होता देखा गया है। हालांकि  Mg के साथ Si की अधिकता से  BLB की गंभीरता ब

1.B की आवश्यकता लिग्निन, सायनिडिंस (ल्युको साइनिडिन)/पॉलीफिनॉल के जैव-संश्लेषण के लिए होती है तथा इसके आदर्श प्रयोग से पौधों में कवक (मुर्झाना/रस्ट) तथा वायरल रोगों के ख़िलाफ प्रतिरोध बढ़ता है। 

2.B के सही उपयोग से पौधों में कीटों के प्रति प्रतिरोध में भी इज़ाफा होता है।  

 

1.Cu को पौधों के रोगों से बचाव करने में अहम माना जाता है। उच्च सांद्रण में Mn की तरह  Cu भी कवकों के लिए प्रत्यक्ष रूप से विषैला होता है। 

2.Cu द्वारा बढ़े प्रतिरोध से उच्च पॉलीमर्स में खासकर प्रोटीन के उपापचय में फिजियोलॉजिकल प्रभाव में वृद्धि होती है। इस कार्य के लिए  Cu का सांद्रता काफी कम होती है।  

3.Cu की आपूर्ति वाले पौधों की कोशिका भित्तियों की बढ़ी हुई लिग्नीफिकेशन से कवकों के लिए पौधों को भेदना कठिन हो जाता है, जो पीड़कों से बचाव का एक कारण है। यही पेरॉक्साइड/पॉलीफेनॉल्स/क्विनॉन्स की बढ़ी हुई वृद्धि की स्थिति में भी देखा जाता है, जो  Ca की पर्याप्त मात्रा युक्त पौधों में बैक्टीरिया के लिए विषैले माने जाते हैं।  

 

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